गौर से देखें तो खेती-बाड़ी करने वालों के लिए इस बजट में ऐसी बहुत सारी व्यवस्थाएं हैं जिन पर अमल करके वे काफी आगे बढ़ सकते हैं। जैसे, अब खेती में ड्रोन का इस्तेमाल होगा। वित्त मंत्री की यह मान्यता रही है कि अगर ड्रोन आधारित खेती हुई तो निश्चित तौर पर किसानों का वक्त बचेगा और खेती की जो एक्यूरेसी है, वह बढ़ेगी। मतलब यह हुआ कि अब ड्रोन की मदद से किसान कम समय में ही यह जान सकेंगे कि उनकी फसलों की स्थिति क्या है और यह भी कि फसलों को दवा कब देनी है, कितनी देनी है, उसकी एक्यूरेसी क्या होनी चाहिए, यह सब ड्रोन की मदद से बेहद आसानी के साथ किया जाएगा।
इसके साथ ही वित्तमंत्री ने कृषि विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ाने पर भी जोर दिया है। पिछले बजट में भी उन्होंने कहा था कि जब तक किसानी को पढ़ाई से नहीं जोड़ा जाएगा, किसानों को शिक्षित नहीं किया जाएगा, तब तक किसानों की आय बढ़ नहीं सकती। पिछले साल का संकल्प इस साल पूरा करते हुए उन्होंने कई कृषि विश्वविद्यालय खोलने की बातें अपने बजट भाषण में कही हैं। माना जाता है कि जब ये कृषि विश्वविद्यालय खुल जाएंगे तो किसानों को जमीन की उर्वरकता, खेती के तौर-तरीके आदि को आधुनिक रूप में समझने में बेहद मदद मिलेगी। वित्त मंत्री का कृषि विश्वविद्यालयों पर जोर इस बात का भी संकेतक है कि वह किसानों को खेती-बाड़ी की पढ़ाई करती हुई देखना चाहती हैं। यह जरूरी भी है।
इस बजट में एक बड़ी बात आर्गेनिक खेती को लेकर भी हुई है। वित्त मंत्री ने कहा है कि अभी पहले चरण में गंगा नदी के पांच किलोमीटर के इलाके में आर्गेनिक खेती की जाएगी। इससे आर्गेनिक खेती को तो बढ़ावा मिलेगा ही, जो पैदावार होगी, वह आम लोगों को भी फायदा पहुंचाएगी। आर्गेनिक खेती में किसी भी किस्म का रसायन इस्तेमाल नहीं होता। इस किस्म की खेती को जीरो बजट खेती भी कहते हैं जिसे कई प्रदेशों के राज्यपाल रहे आचार्य वेदव्रत ने जबरदस्त तरीके से आगे बढ़ाया। माना जा रहा है कि आर्गेनिक खेती का मूल कांसेप्ट उन्हीं का है जिससे प्रधानमंत्री भी सहमत थे। वही चीज आज के बजट में भी प्रभावी तरीके से सामने आई है।
इस बजट में अनेक नदियों के किनारे विभिन्न किस्म की परियोजनाओं को भी शुरू करने की बात कही गई है। मध्य प्रदेश के बेतवा परियोजना के लिए 44650 करोड़ रुपये की व्यवस्था की गई है। मकसद यह है कि देश भर के करीब 10 लाख हेक्टेयर भूमि को खेती योग्य जल उपलब्ध हो।
वित्तमंत्री ने किसानों को और राहत देने की पेशकश की है। उन्होंने अपने बजट भाषण में कहा है कि सरकार चाहती है कि किसानों की अधिकांश फसल वह खुद खरीद ले ताकि किसानों की आर्थिक स्थिति मजबूत हो सके। उन्होंने उम्मीद जताई कि वर्ष 2022-23 तक केंद्र सरकार किसानों से 1000 एमएलटी धान की फसल खरीदे।
इस बजट में एग्रो फारेस्ट्री को लेकर भी चर्चा हुई। वित्त मंत्री ने कहा कि आने वाला वक्त एग्रो फारेस्ट्री का है। जो भी किसान इस क्षेत्र में आना चाहें, सरकार उनकी मदद करेगी। पैसे देगी। उन्हें अन्य तरीकों से भी सहयोग करेगी। सब्सिडी देने की बात चल रही है।
कृषि से ही जुड़े ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए भी इस बजट में काफी बातें कही गई हैं। उनमें अहम है, देश भर के सभी गांवों में 2025 तक आप्टिकल फाइबर बिछा देना। वित्त मंत्री ने कहाः यह बेहद उम्दा योजना है। हम चाहते हैं कि देश के जितने भी गांव हैं, उन सभी गांवों में आप्टिकल फाइबर बिछाया जाए ताकि हर गांव इंटरनेट से कनेक्टेड हो। उनका कहना था कि अभी इंटरनेट की कमी के कारण देश के गांवों का एक बड़ा हिस्सा तकनीकी ज्ञान और कृषि संबंधी जानकारियों सहित अनेक फायदों और सुविधाओं से अनभिज्ञ रह जाता है। केंद्र सरकार चाहती है कि कृष् और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बढ़ाने के लिए इस क्षेत्र में काम हो और तेजी से हो। हमें पूरा विश्वास है कि देश के सभी गांव 2025 तक इंटरनेट की सुविधा से युक्त हो जाएंगे। एक बार जब वह इंटरनेट की सुविधा से जुड़ जाएंगे तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था का कायाकल्प होने में बहुत वक्त नहीं लगेगा।
आजकल आप बार-बार 'अल-नीनो' का नाम सुन रहे होंगे। क्या आपको मालूम है, कि यह कैसे आपकी और हमारी जेब पर प्रभाव डालता है। कैसे देश में खेती-किसानी और अर्थव्यवस्था को चौपट करता है।
आगे हम आपको इस लेख में इसके विषय में बताने वाले हैं। आजकल ‘अल-नीनो’ का जिक्र बार-बार किया जा रहा है। इसकी वजह से महंगाई में इजाफा, मानसून खराब होने और सूखा पड़ने की संभावना भी जताई जा रही है।
ऐसी स्थिति में क्या ये जानना आवश्यक नहीं हो जाता है, कि आखिर ‘अल-नीनो’ होता क्या है ? यह कैसे देश की अर्थव्यवस्था और आपकी हमारी जेब का पूरा हिसाब-किताब को प्रभावित करता है?
सरल भाषा में कहा जाए तो ‘अल-नीनो’ प्रशांत महासागर में बनने वाली एक मौसमिक स्थिति है, जो नमी से भरी मानसूनी पवनों को बाधित और प्रभावित करती हैं।
इस वहज से विश्व के भिन्न-भिन्न देशों का मौसम प्रभावित होता है। जानकारी के लिए बतादें, कि भारत, पेरू, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और प्रशांत महासागर से सटे विभिन्न देश इसके चंगुल में आते हैं।
यह भारत की सरजमीं से दूर प्रशांत महासागर में रहता है। यह देश में शादी होने से पहले यानी ‘मानसून आने से पहले’ ही अपना मुंह फुला कर बैठ जाता है।
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दरअसल, जब प्रशांत महासागर की सतह सामान्य से भी अधिक गर्म हो जाती है। जब ऑस्ट्रेलिया से लेकर पेरू के मध्य चलने वाली पवनों का चक्र प्रभावित होता है।
इसी मौसमी घटना को हम ‘अल-नीनो’ कहते है। सामान्य स्थिति में ठंडी हवाएं पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर चलती हैं। वहीं गर्म पवन पश्चिम से पूर्व की दिशा में चलती हैं।
वहीं ‘अल-नीनो’ की स्थिति में पूर्व से पश्चिम की बहने वाली गर्म हवाएं पेरू के आसपास ही इकट्ठा होने लगती हैं अथवा इधर-उधर हो जाती हैं। इससे प्रशांत महासागर में दबाव का स्तर डगमगा जाता है।
इसका प्रभाव हिंद महासागर से उठने वाली दक्षिण-पश्चिम मानसूनी हवाओं पर दिखाई देता है। इन्हीं, पवनों से भारत में घनघोर वर्षा होती है।
भारत में खेती आज भी बड़े स्तर पर ‘मानसूनी बारिश’ पर आधीन रहती है। ‘अल-नीनो’ के असर के चलते भारत में मानसून का विभाजन बिगड़ जाता है, इसी वजह से कहीं सूखा पड़ता है तो कहीं बाढ़ आती है।
साथ ही, देश की अर्थव्यवस्था पर भी असर डालता है। खेती पर प्रभाव पड़ने से उत्पादन भी प्रभावित होता है। इसके साथ-साथ खाद्य उत्पादों की कीमतें भी बढ़ती हैं।
इसका सीधा सा अर्थ है, कि महंगाई के चलते आपकी रसोई का बजट तो प्रभावित होना तय है। अन्य दूसरे कृषकों की आमदनी प्रभावित होने से भारत में मांग की एक बड़ी समस्या उपरांत होती है।
साथ ही, महंगाई में बढ़ोत्तरी आने से लोग अपनी लागत को नियंत्रित करने लगते हैं। इसका परिणाम अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ता है। भारत में मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री और ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री को इसका काफी बड़ा नुकसान वहन करना पड़ता है।
नीति आयोग के प्रोफेसर रमेश चंद का कहना है, कि विभिन्न विकसित और विकासशील देशों के मुकाबले भारत में प्रति टन फसलीय उपज में 2-3 गुना ज्यादा जल की खपत होती है।
प्रो. चंद ने कहा कि कृषि क्षेत्र सिंचाई परियोजनाओं में संसाधनों की बर्बादी, फसल के गलत तौर-तरीकों, खेती-बाड़ी की गलत तकनीकों और चावल जैसी ज्यादा पानी उपयोग करने वाली एवं बिना मौसम वाली फसलों पर बल देने से समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है।
समस्या का शीघ्र समाधान करने की जरूरत है, जिसके लिए सटीक खेती और आधुनिक तकनीकों का चयन करने की आवश्यकता है। विशेष तौर पर कम पानी वाली फसलों पर अधिक बल देना होगा।"
भारत कई विकसित और विकासशील देशों के मुकाबले में 1 टन फसल उपज करने के लिए 2-3 गुना अधिक पानी का उपयोग करता है। खेती का रकबा बढ़ा है, लेकिन ज्यादातर रबी फसलों का, जब बारिश न के बराबर होती है। इसे बदलने की जरूरत है। राज्य सरकारों को विशेष रूप से स्थानीय पर्यावरण और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार खेती-बाड़ी को बढ़ावा देने की जरूरत है।
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यह बात नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद, धानुका समूह द्वारा विश्व जल दिवस 2024 के अवसर पर नई दिल्ली में आयोजित एक समारोह में मुख्य भाषण देते हुए कही गई।
वर्ष 2015 से पहले भारत के सिंचाई बुनियादी ढांचे की दुर्दशा पर प्रकाश डालते हुए, प्रोफेसर रमेश चंद ने आगे कहा, 1995 और 2015 के बीच, छोटे-बड़े सभी तरीके के सिंचाई परियोजनाओं पर अरबों रुपये खर्च हुए। लेकिन, सिंचित जमीन उतनी ही रही। इसमें बड़े बदलाव की आवश्यकता थी और 2015 से केंद्र सरकार ने स्थिति का आंकलन कर तंत्र को बदल दिया। परिणामस्वरूप, पिछले कुछ वर्षों से सिंचित भूमि हर वर्ष 1% बढ़ते हुए 47% से 55% हो गई है।
दरअसल, कम पानी निवेश में सिंचित भूमि में इजाफा करने पर जोर देते हुए भारत सरकार में कृषि आयुक्त डॉ पी के सिंह ने कहा, जल शक्ति मंत्रालय के सहयोग से हम जमीन के ऊपर के पानी के बेहतर उपयोग के तरीकों पर काम कर रहे हैं।
उदाहरण के लिए, यदि एक नहर का पानी वर्तमान में 100 हेक्टेयर कृषि भूमि को सिंचित कर रहा है, तो हम विभिन्न साधनों का उपयोग करके समान मात्रा में पानी का उपयोग करके इसे 150 हेक्टेयर तक कैसे ले जा सकते हैं।
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आईसीएआर के उप महानिदेशक (कृषि शिक्षा) डॉ. आर सी अग्रवाल ने कृषि क्षेत्र में पानी के सही उपयोग के बारे में किसानों और युवाओं को शिक्षित करने की आवश्यकता पर जोर दिया।
डॉ. अग्रवाल ने कहा, हम एक पाठ्यक्रम डिजाइन कर रहे हैं, जो उन्हें कृषि क्षेत्र में पानी के उपयोग के बारे में जागरूक करेगा और समाधान प्रदान करेगा।
बतादें, कि शुरुआत करते हुए धानुका समूह के चेयरमैन आरजी अग्रवाल ने कृषि कार्यों में आधुनिक तकनीकों का ज्यादा से ज्यादा उपयोग पर बल दिया।
उन्होंने कहा कि लगभग 70% प्रतिशत पानी का उपयोग कृषि उद्देश्यों के लिए किया जाता है। ड्रोन, स्प्रिंकलर, ड्रिप सिंचाई और जल सेंसर जैसी आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल से कृषि उद्देश्यों के लिए पानी की जरूरत को काफी कम करने में सहायता मिलेगी। इससे पानी की बर्बादी को काफी हद तक कम करने में भी सहायता मिलेगी।